Sunday, 6 September 2015

वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में सामाजिकता शब्द के एहसास के अभाव की चुभन द्वारा श्री अनिल कुमार गुप्ता

वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में सामाजिकता शब्द के एहसास के अभाव की चुभन
द्वारा
श्री अनिल कुमार गुप्ता
एम कॉम ., एम ए (अर्थशास्त्र एवं अंग्रेजी साहित्य), पुस्तकालय विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि , कंप्यूटर डिप्लोमा , हिमालय वुड बैज ( स्काउट)
पुस्तकालय अध्यक्ष
( क्षेत्रीय प्रोत्साहन पुरस्कार से सम्मानित – 2014  - गुडगाँव संभाग)
केंद्रीय विद्यालय फाजिल्का
                  वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में पिछले बहुत ही कम समय में भयावह परिवर्तन हुए हैं जिन्हें 40 - 50 वर्ष पूर्व की पीढ़ी किसी भी कीमत पर स्वीकारने को तैयार नहीं दिखाई देती और  हो भी क्यों न | इन परिवर्तनों से संस्कृति व संस्कारों की हज़ारों वर्षों से अर्जित की गयी धरोहर को पिछले मात्र 25 – 30 वर्षों के भीतर शिखर से धरातल पर ला खड़ा किया है | धार्मिक व सांस्कृतिक विचारों की पूँजी को आधुनिक विचारों की दीमक ने चट कर लिया है | इस आधुनिक विचारधारा और न्यायपालिका के प्रति होते मोहभंग ने समाज को घुट – घुटकर जीने को बाध्य किया है | एक अजीब सा डर मन में जगह बनाए हुए है कि कौन, कब और कहाँ से , किस रूप में सामने खड़ा हो जाए | इसकी  कल्पना मात्र से मानव मन घबराने लगता है | क्रोध व अविवेक की पराकाष्ठा ने मनुष्य को मानव होने के सुख से वंचित किया है | मानवता स्वयं के अस्तित्व को खोजती हिरन की भांति यहाँ से वहां विचरती नज़र आ रही है | सामाजिकता में अवसरवादिता ने मानव को उसके पतन की ओर अग्रसर किया है |
                   आज जिन पाश्चात्य विचारों से पश्चिमी देश के लोग स्वयं को मुक्त कराने में लगे हैं उन्हीं विचारों से हम लोग ग्रसित हो रहे हैं | सीखना है तो पश्चिमी विचारों से अनुशासन सीखो और भी कुछ अच्छा सीखना है तो उनसे नियमों का पालन करना सीखो | उनसे राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना सीखो | पश्चिमी संस्कृति के लोग आज स्वयं को  योग और आध्यात्म की ओर प्रेरित करने में लगे हैं | वहीं भारत की युवा पीढ़ी आधुनिकता की अंधी दौड़ में शामिल हो अपनी युवा ऊर्जा को नष्ट कर रही है | अधिकतर आधुनिक विचार प्राकृतिक न होकर अप्राकृतिक की श्रेणी में आ गए हैं | सात्विक विचारों की गंगा विपरीत दिशा में बह रही है | जिन विचारों को हम कुविचारों की श्रेणी में रखते हैं उन्हीं विचारों में युवा पीढ़ी   चरमोत्कर्ष की प्राप्ति का सुख ढूँढने में लगी है | जो कि शास्त्र विरुद्ध हैं इन विचारों की वैज्ञानिक प्रामाणिकता सिद्ध करने के असफल प्रयास किये जा रहे हैं | स्त्री – पुरुष को रचने के पीछे जो मंशा उस परमपूज्य परमात्मा की रही उसे हमने वैज्ञानिक विचारों की बलि चढ़ा दिया है | “ कम जियो, खुलकर जियो “ इस विचार ने सत्मार्ग और कुमार्ग के बीच का अंतर समाप्त कर दिया है | आँखों में शर्म दिखाई नहीं देती | एक प्रकार का वहशीपन साथ लिए हम जीने का प्रयास किये जा रहे हैं |
                   पिछले 25 वर्षों के तकनीकी परिवर्तन ने मानव को अपने उत्थान की दिशा से भटकाकर एक ऐसे भंवर में फंसा दिया है जहां से निकलने का मार्ग है ही नहीं | पहले कहते थे 1/3 भाग जीवन का सोने में व्यर्थ हो जाता है किन्त अब तकनीक ( इन्टरनेट , मोबाइल, टी वी आदि )  के इस्तेमाल ने 1/3 भाग और कब्ज़ा कर लिया है | इस प्रकार जीवन का 2/3 भाग इन बेकार की गतिविधियों में व्यर्थ हो जाता है | अब बचा 1/3 भाग जीवन का इसे हम अपने भरण – पोषण के लिए और विलासिता के साधनों को जुटाने में गँवा देते हैं | अब सोचने का विषय यह है कि मानव के स्वयं के उत्थान के लिए समय तो बचा ही नहीं जो वह अपना आध्यात्मिक उत्थान कर सके और उस परमपूज्य परमात्मा की शरण हो सके |
              आइये अब नज़र डालते हैं उन विषयों की ओर जिन्होंने  मानव विचारों को दिशाहीन किया | हम यहाँ पर चर्चा करें “ Live – in – relationship “ की | इस प्रकार के सम्बन्ध का वास्तविक अर्थ यह है कि चार दिन एक दूसरे के साथ रहो , उस परमपूज्य परमात्मा की अनुमति बगैर शारीरिक सुख की अनुभूति करो | एक दूसरे को वैज्ञानिक विचारों से ओतप्रोत होकर जानने का प्रयास करो और जब ऊब जाओ तो जिस तरह कपड़े बदलते हैं ठीक उसी तरह अगले ही क्षण किसी और की उतरन धारण कर लो | संस्कार, परम्परायें , संस्कृति इन सब पर प्रत्यक्ष रूप से प्रहार किया जा रहा है | पर आज कोई भी धर्म, संस्कार, संस्कृति व परम्पराओं की रक्षा के विषय में कोई नहीं सोचता | सब भागे जा रहे हैं | किस दिशा में और किसलिए इसका ज्ञान किये बिना | वैवाहिक संस्कार की परम्परा और उस परमात्मा के आशीर्वाद पश्चात किये जाने वाले वैवाहिक संबंधों को झुठलाता यह  “ Live – in – relationship “ एक नासूर की भांति वर्तमान सामाजिक पर्यावरण का हिस्सा हो गया है | इस प्रकार के संबंधों से केवल एक ही बीज उपजता है जिसे भगवद गीता में “वर्णशंकर “ की संज्ञा दी गयी है | एक बात हमारे समझ में नहीं आती कि आज की युवा पीढ़ी सामाजिक सबंधों को स्वाकारने से डरती क्यों है ?
              दूसरी एक और अप्राकृतिक गतिविधि आज हमारे सामने परिलक्षित हो रही है वह है लड़के – लड़कियों का “ date” करना | यह एक ऐसी गतिविधि है जिसे हम कह सकते हैं पैसा खर्च करो और भरपूर आनंद उठाओ और जब जेब खाली हो जाए तो उसी लड़की से जूते खाओ | ”date “ क्या कोई फल है | यह एक मौज – मस्ती की आधुनिक व्यवस्था है जिसका जन्म इसलिए किया गया ताकि युवा होने से पूर्व ही युवा पीढ़ी , प्रौढ़ की कतार में आ कड़ी हो जाए | जहां भी देखो अप्राकृतिक कृत्यों का खेल | केवल जिन्दगी को मज़ा लेने का एक माध्यम समझा जा रहा है | केवल पतन की ओर अग्रसर होने का एक अप्राकृतिक प्रयास | आध्यात्मिक उत्थान के बारे में चिंतन करने के लिए समय ही कहाँ है | इन मौज - मस्ती से फुर्सत मिले और जीवन शेष बचे तो कुछ सोचें |
                           एक और अप्राकृतिक कृत्य जिसे 
 “ गे ” की संज्ञा दी गयी है | यह सभी कृत्यों में “ सबसे घृणित “ कृत्य दृष्टिगोचर होता है | यह परमात्मा द्वारा निर्मित स्त्री – पुरुष रुपी कृतियों की धरा पर उपस्थिति पर प्रश्न चिन्ह लगाता है | जब पुरुष ही पुरुष के साथ वैवाहिक या अवैवाहिक जीवन का चरम प्राप्त करना चाहे तो वंश व्यवस्था का क्या होगा | क्या ये वंश वृद्धि कर सकेंगे ? क्या धरती पर स्त्री या पुरुष का कोई नामोनिशान होगा | समझ से परे यह कृत्य मानसिक विकार का द्योतक है जो केवल “ काम – वासना “ की पूर्ति का एक अप्राकृतिक स्रोत है , माध्यम है जो विकृत विचारों को संतुष्टि प्राप्ति के भ्रम में उलझाता है | अगर पुरुष इस कृत्य में लिप्त है तो दूसरी ओर लड़कियां भी इसमें पीछे नहीं हैं | उन्होंने भी अपनी व्यवस्था कर रखी है जिसे हम “ homosex “ की संज्ञा देते हैं अर्थात लड़कियों द्वारा लड़कियों का वरण या फिर अवैवाहिक जीवन सम्बन्ध या फिर घर से ऊब जाओ तो किसी को भी गले लगा लो और इस प्रकार के अनैतिक खेल को जब तक हो सके चलने दो | क्या ये भी “ गे “ पुरुष की तरह वंश परम्परा को आगे बढ़ा सकती हैं | क्या इन्हें इस कृत्य में कुछ भी अप्राकृतिक बोध नहीं होता | किस दिशा में बढ़ रहे हैं हम | समझ से परे | जब जीवन का उद्देश्य ही “ काम “ हो गया है तो “ कार्य “ के लिए समय ही कहाँ बचा है |
              मायानगरों की माया अजब ही निराली है | आधुनिक विचारों की अंधी दौड़ का परिणाम यह है कि ये आधुनिक विचारों से संपन्न पति – पत्नी स्वयं को एक अजब खेल से बांधे हुए हैं | जिसमे कुछ “ व्यवसायी एवं गैर – व्यवसायी “ मिलकर छोटे – छोटे समूह बना लेते हैं | वे प्रायः एक दूसरे के “कहे जाने वाले मित्र “ होते हैं | किन्तु वास्तविकता यह है कि ये इस समूह के माध्यम से अपनी पत्नी को सहवास के लिए दूसरे मित्र को सौंप देते हैं | ये कृत्य केवल पुरुष ही संपन्न नहीं करते अपितु इस प्रकार का खेल पत्नियां भी खेलती हैं जिसमे वे अपने पति को दूसरी सहेली को सहवास के सौंपने के लिए तैयार रहती हैं | यह सब पति – पत्नी की आपसी रजामंदी से होता है | उनके लिए मौज – मस्ती का नाम जिन्दगी है | उनके हिसाब से सात्विक विचार, सात्विक कर्म, मर्यादा, नियम, संस्कार आदि ये सब पुरानी पीढ़ी की कोरी एवं बकवास परम्परायें हैं | ये किस प्रकार के असामाजिक बंधन से जुड़े हुए हैं लोग ? जानवरों की भांति रिश्तों को ढो रहे हैं केवल और केवल काम – वासना की पूर्ति के लिए |
                   चिंतन का विषय तो यह है कि विश्व के ज्यादातर देशों की न्यायपालिका इस प्रकार के अप्राकृतिक कृत्यों का खुला समर्थन कर रही हैं | जिसके कारण स्थिति और भी भयावह हो गयी है |
                 एक और कृत्य की चर्चा मैं यहाँ पर करना चाहूंगा वह है “ किराए पर कोख “ इसमें किसी दूसरे पुरुष का वीर्य किसी तीसरी “ किराए की महिला के गर्भ में “ स्थापित कर बच्चे के जन्म को निश्चित किया जाता है  | यह वंश को आगे बढ़ाने का एक प्राकृतिक जरिया समझा जा रहा है किन्तु इस आधुनिक अप्राकृतिक कृत्य में सोचने की बात यह है कि जिस स्त्री ने अपने वंश को आगे बढ़ाने हेतु यह मार्ग अपनाया है उस स्त्री ने जब नौ महीने के गर्भ धारण की प्रक्रिया की असहजता और मातृत्व के सुख की प्राप्ति में आने वाले क्षणों को जब जिया ही नहीं तो वह उस बच्चे के साथ किस तरह मातृत्व संवेदनाओं के साथ सम्बन्ध बना सकती है | जब कष्ट भोग ही नहीं , जब कष्ट उठाया ही नहीं तो परिणाम का आनंद कैसे लिया जा सकता है | बेहतर हो किसी अनाथ बच्चे के जीवन को पुष्पित किया जाए और जनसँख्या नियंत्रण कार्यक्रम में अपना अमूल्य योगदान दिया जाए |
                   आजकल चलन में एक और नई बात देखने में आ रही है वह है नए – नए विषयों का आवश्यकतानुसार चलन | जैसे “ my body my rule “ आइये अब इस विषय पर हम चर्चा करें | आज की युवा पीढ़ी कहती है कि जब तन हमारा है तो इसके विषय में निर्णय लेने का अधिकार भी केवल उन्हीं के पास है | कितनी अजीब बात है कि जिस शरीर का निर्माण वह परमेश्वर करता है तो वह शरीर किसी का अपना निजी शरीर कैसे हो सकता है | परमात्मा ने इस शरीर को किस प्रयोजन के साथ तैयार किया है इस विषय पर भी युवा पीढ़ी को सोचना चाहिए | मानव का जन्म केवल शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नहीं हुआ है समाज कल्याण के साथ – साथ स्वयं को उस परमपूज्य परमात्मा की शरण में ले जाना जीवन का उद्देश्य होना  चाहिए | किन्तु आज की युवा पीढ़ी स्वयं को स्वयं के निर्माण के लिए “ भगवान् “ समझ बैठी है | जो उनकी मर्ज़ी होगी वही होगा | माता – पिता को उन पर कोई अधिकार नहीं होगा | अशोभनीय कृत्य है यह | जिसके लिए परमात्मा इस पीढ़ी को कभी क्षमा नहीं करेगा | मेरी उस परमपूज्य परमात्मा से ऐसी प्रार्थना है कि इस प्रकार के चरित्रों को दोबारा इस धरा पर स्थान नहीं देना जो कि अमानवतावादी विचारों का सहारा लेकर स्वयं को स्वयं का अधिष्ठाता घोषित किये हुए हैं |   ऐसे चरित्रों से समाज विपरीत दिशा में पलायन करने लगता है |
                   अब मैं यहाँ आने वाले समय की चर्चा करना चाहूंगा | आने वाले समय को सोचकर ही मन व्यथित हो जाता है | धार्मिक परम्पराओं का अनुसरण कर हम एक स्वस्थ समाज की स्थापना कर सकते हैं | संस्कृति व संस्कारों के प्रति हमारी आस्था आने वाली पीढ़ी को पथभ्रष्ट होने से बचा सकती है | “ Audio – Visual – Aids “ एवं “ multimedia “ के प्रभाव ने आधुनिक शैली या कहें पाश्चात्य विचारों को बढ़ – चढ़कर प्रसारित किया है | वहीं दूसरी ओर नैतिक मूल्यों के प्रति उनकी उदासीनता ने युवा पीढ़ी को भ्रमित किया है | उलटे – सीधे विषयों पर तैयार होते TV - serials , pictures , channels , programmes आदि ने नग्नता परोसने के सिवाय अपने विषय को कोई स्वस्थ दिशा प्रदान नहीं की | अर्धनग्न व कहीं – कहीं तो पूरी नग्न होती महिलायें एवं आजकल के अभिनेता भी नग्न दृश्यों के साथ  स्वयमको प्रदर्शित करते सहज महसूस होते दिखाई देते हैं | सीमायें अब सीमायें नहीं रहीं | बची – कुची व्यवस्था “ पोर्न sites “ ने पूरी कर दी है जो कि किसी भी आयुवर्ग के दर्शकों की पहुँच में है | इस विषय पर अभी तक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई सहमती नहीं बन पाई है कि ऐसे विषयों पर प्रतिबन्ध लगाया जाए | कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि यह मानव अधिकार का हनन है | अर्थात इस धरती पर जीते रहो चाहे समाज के लिए आप नासूर बनकर जियें | इन विषयों पर लगाम न लगने से आये दिन हम बलात्कार जैसी घटनाओं से रूबरू हो रहे हैं | “ पोर्न sites “ पर काम करने वाली महिलाओं को फिल्म के माध्यम से “ सेलेब्रिटी “ बनाकर समाज में स्थापित करने के अनैतिक प्रयास किये जा रहे हैं | इन प्रयासों के पीछे का सच कुछ और ही है |
          विशेषज्ञ सलाह देते हैं की बुजुर्गों को , पालकों को इस युवा पीढ़ी की इच्छाओं , भावनाओं के अनुरूप स्वयं को ढाल लेना चाहिए जबकि होना तो ये चाहिए कि बच्चों को मर्यादित जीवन जीने की ओर जीने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए | ऐसे सामाजिक व्यक्तित्वों, चरित्रों को channels के माध्यम से जन – जन तक पहुंचाना चाहिए ताकि युवा पीढ़ी इस आदर्शों की पूँजी से वे अपने जीवन को संयमित कर सकें | स्वयं को समाज में प्रतिष्ठित कर सकें | देश का गौरव बढ़ा सकें | जिस प्रकार विवेकानंद, शुभाष चन्द्र बोस , महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरु, रविंद्रनाथ टैगोर, सचिन तेंदुलकर, जैसी बहुत सी महान हस्तियों ने स्वयं भी संयमित जीवन जिया और अन्य लोगों को भी प्रेरित किया | देश को सर्वोच्च समझ स्वस्थ समाज की स्थापना के प्रयास किये |
          आओ चलें कुछ दूर स्वस्थ सामाजिक, सांस्कृतिक, संस्कारों से ओतप्रोत मार्ग पर | फिर निश्चित करें क्या सही है और क्या गलत |

( इस लेख को पढ़ने के लिए आपका शुक्रिया )
    
         


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